Reproduction of Plant
इस चैप्टर में हम कुछ टॉपिक्स जैसे reproduction plant , reproduction in plant class 7 , reproduction plants and animals , reproduction in plant class 5 , plant reproductive organs , plant reproduction types इन सभी के बारे में विस्तार से जानेंगे
Reproduction Define
what is plant reproduction ?
जनन के फलस्वरूप संतानों (offspring) की उत्पत्ति होती है जो अपनी वृद्धि कर पुन जनन करने के योग्य जाते हैं एवं नई संतानों की उत्पत्ति करते है। विभिन्न जैव प्रमों की तरह जीवों को जीवित रहते के लिए आवश्यकता नहीं होती, लेकिन संतति के सूजन के लिए यह आवश्यक है।
Reproductive system in hindi
जोवों द्वारा समान संतति का सृजन
जनन किया द्वारा जीव समान संतति (similar offspring) क सूजन करते हैं, लेकिन दिखने में एकसमान होते हुए भी ये किसी-न-किसी रूप में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। जैसा कि आप जानते है जीवों की कोशिका में केंद्र पाया जाता है। के भीतर DNA एवं प्रोटीन से निर्मित गुणसूत्र ते है। यह गुण आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है जो जनक से संतति पीढ़ी में जाता है। जावों के लिए आवश्यक विभिन्न प्रकार के प्रोटीन के निर्माण का संदेश भी DNA में हो होता है। किसी कारणवश अगर DNA से मिलनेवाले संदेश में भिन्नता हो जाए तो जीवों की शारीरिक रचना में भी पैदा हो जाएगी।
Reproduction plants
Reproduction of plants
जनन या कोशिका विभाजन के पहले चरण में DNA को प्रतिकृति बनना (replication) आवश्यक है। इसलिए जरूरी है कि विभाजन के बाद बननेवाली दोनों कोशिकाओं को DNA की एक प्रति मिल सके। विभिन्न रासायनिक क्रियाओं के बाद DNA की प्रतिकृति तैयार होती है।
DNA को प्रतिलिपि बनने के साथ-साथ अन्य आवश्यक कोशिकीय संरचनाओं का भी सृजन होता है जिससे विभिन्न जैव प्रमों का संचालन तथा अनुरक्षण मंतति में हो सके प्रतिकृति के बाद दोनों DNA के अणु में कुछ भिन्नता पाई जाती है। इसका मुख्य DNA प्रतिकृति की प्रक्रिया में होनेवाली कुछ विभिन्नता है।
इस प्रकार, विभाजन के फलस्वरूप कोशिका से जब दो संतति कोशिकाएँ बनती है तो दोनों समान होते हुए भी किसी-न-किसी रूप में एक-दूसरे से अलग होती हैं। इन्हीं विभिन्नताओं के कई पीढ़ियों तक एकत्र होने के चलते जीवों की नई जाति का विकास होता है।
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विभिन्नता का महत्त्व
जनन-क्रिया द्वारा जीवों की व्यष्टियाँ (individuals) किसी स्थान पर एकत्रित होकर समष्टि (population) का निर्माण करती हैं। इससे जीवों की जातियों का किसी स्थान पर स्थायित्व कायम रहता है। लेकिन जिस वातावरण में जीव रहते हैं उसमें प्राकृतिक कारणों से परिवर्तन होते रहते हैं, जैसे वायुमंडल के तापक्रम में उतार-चढ़ाव, जल-स्तर में होनेवाले परिवर्तन, किसी उल्कापिंड का धरती से टकराना, भूकंप आदि। इन कारकों के चलते समष्टि का आंशिक या पूर्ण रूप से नाश भी हो सकता है।
अगर वायुमंडल या अपने वास स्थान में होनेवाले परिवर्तनों के अनुरूप जीव अपने में अनुकूलन (adaptation) कर सकें तो बदली हुई परिस्थितियों में उनका जीवित रहना संभव हो सकता है। इसे एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। मान लें कि किसी स्थान पर वायुमंडल के तापक्रम में अचानक कमी आ जाती है। इसके चलते बहुत से जीव नष्ट हो जाएँगे, लेकिन कुछ जीव जो इस प्रतिकूल स्थिति को सहने के योग्य होंगे वे धीरे-धीरे अपने में परिवर्तन कर अपने को इस वातावरण में रहने लायक बना लेंगे। अब इनमें उत्पन्न अनुकूल विभिन्नताएँ एकत्रित होने लगेंगी, एवं कुछ पीढ़ियों के बाद नई जाति की उत्पत्ति होगी।
इस प्रकार किसी जाति के अस्तित्व को बनाए रखने में विभिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इससे विभिन्न वायुमंडलीय परिस्थितियों में जीवों की उत्तरजीविता बनी रहती है।
जनन के प्रकार - जीवों में जनन मुख्यतः दो तरीके से संपन्न होता है— अलैगिक जनन तथा लैंगिक जनन ।
अलैगिक जनन (asexual reproduction) की विशेषताएँ इस प्रकार हैं- (i) इसमें जीवों का सिर्फ एक व्यष्टि (individual) भाग लेता है। (ii) इसमें युग्मक (gametes), अर्थात शुक्राणु और अंडाणु कोई भाग नहीं लेते। (iii) इस प्रकार के जनन में या तो समसूत्री कोशिका-विभाजन (mitosis) या असमसूत्री कोशिका विभाजन (amitosis) होता है। (iv) अलैगिक जनन के बाद जो संतानें पैदा होती है वे आनुवंशिक गुणों में ठीक जनकों के समान होती है। (v) इस प्रकार के जनन से ज्यादा संख्या में एवं जल्दी से जीव अपनी संतानों की उत्पत्ति कर सकते हैं। (vi) निम्न कोटि के पौधे एवं जंतुओं में जिनके शरीर जटिल नहीं होते हैं, यह जनन मुख्य रूप से संतानों की उत्पत्ति करता है। (vii) इसमें निषेचन की जरूरत नहीं पड़ती है, क्योंकि युग्मकों का संगलन (fusion) नहीं होता है।
जीवों में अलैंगिक जनन निम्नांकित कई विधियों से संपन्न
होता है।
1. विखंडन (Fission)– विखंडन के द्वारा ही मुख्य रूप से एककोशिकीय जीव (unicellular organisms) जनन करते हैं; जैसे जीवाणु, अमीबा, पैरामीशियम, एककोशिकीय शैवाल, यूग्लीना आदि। सामान्यतः विखंडन की क्रिया दो प्रकार से संपन्न होती है- (क) द्विखंडन (binary fission) एवं (ख) बहुखंडन (multiple fission)
(क) द्विखंडन या द्विविभाजन (Binary fission)- वैसा विभाजन
जिसके द्वारा एक व्यष्टि से खंडित होकर दो का निर्माण होता हो, उसे द्विखंडन या द्विविभाजन कहते हैं। एककोशिकीय जीवों; जैसे जीवाणु (bacteria), पैरामीशियम, अमीबा, क्लेमाइडोमोनास (Chlamydomonas), यूग्लीना (Euglena), यीस्ट (yeast) आदि में द्विखंडन जनन की सबसे सामान्य विधि है। इस विधि में कोशिका या संपूर्ण शरीर का दो बराबर भागों में विभाजन हो जाता है। सर्वप्रथम कोशिका या शरीर वृद्धि कर परिपक्व होता है। इसके बाद केंद्रक (nucleus) समसूत्री विभाजन (mitosis) या असमसूत्री विभाजन (amitosis) द्वारा दो समान संतति केंद्रकों (daughter nuclei)
में विभाजित हो जाता है। अंत में, कोशिकाद्रव्य या साइटोप्लाज्म (cytoplasm) भी दो बराबर भागों में बँट जाता है। इससे दो संतति जीवों (daughter organisms) की उत्पत्ति होती है तथा दोनों में एक-एक संतति केंद्रक मौजूद रहता है। संतति जीव आपस में एक रूप के (morphologically similar) एवं आनुवंशिक गुणों में एकसमान होते हैं। इस प्रकार का जनन अनुकूल वातावरण में संपन्न होता है।
(ख) बहुखंडन या बहुविभाजन (Multiple fission) वैसा, विभाजन जिसके द्वारा एक व्यष्टि खंडित होकर अनेक व्यष्टियों की उत्पत्ति करता हो, उसे बहखंडन या वहविभाजन कहते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में कुछ एककोशिकीय जीव,
जैसे अमीबा, प्लैज्मोडियम (मलेरिया परजीवी), निम्न कोटि के शैवाल के शरीर या कोशिका के चारों ओर एक कड़ी भित्ति का निर्माण होता है जिसे पुटी या सिस्ट (cyst) कहा जाता है। कोशिका के भीतर मौजूद केंद्रक बार-बार विभाजित होकर संतति केंद्रकों का निर्माण करता है। इसके बाद इन केंद्रकों के चारों ओर कोशिकाद्रव्य का आवरण बन जाता है। इस प्रकार पुटी के अंदर कई संतति कोशिकाओं (daughter cells) की उत्पत्ति हो जाती है। अनुकूल परिस्थितियों के आगमन पर पुटी फट जाती है और संतति कोशिकाएँ बाहर निकलकर विकसित होती हैं तथा अनुजात जीवों का जन्म होता है।
उक्त दोनों प्रकार के विखंडन की विधियों से उत्पन्न वंशजों को अनुजात कहा जाता है। वस्तुतः खंडन में जीव के संपूर्ण शरीर का विभाजन हो जाता है। विभाजन के बाद जनक-जीव (parent organism) का शरीर बिलकुल गायब हो जाता है एवं सिर्फ उत्पन्न वंशज ही बचे रहते हैं। अतः, जनक-जीव से उत्पन्न सभी संततियों को अनुजात कहा जाता है।
बहुकोशिकीय जीवों में जनन की विधि अपेक्षाकृत जटिल होती है, क्योंकि इनमें कोशिकाएँ संगठित होकर ऊतक एवं ऊतकों से विभिन्न अंगों का निर्माण होता है। अतः कोशिका विभाजन द्वारा जनन संभव नहीं है। इनमें जनन-क्रिया निम्नलिखित विधियों से होती है।
2. मुकुलन (Budding)- पुकूलन एक प्रकार का अलैगिक जनन है जो जनक के शरीर के धरातल से कलिका फूटने या
•प्रवर्ध निकलने के फलस्वरूप संपन्न होता है।
(क) एककोशिकीय जीवों में मुकुलन (Budding in unicellular (organisms)– एककोशिकीय जीव; जैसे यीस्ट में सर्वप्रथम शरीर या कोशिका के ऊपर किसी भी भाग से एक या एक से ज्यादा कंदरूपी (bulblike) उभार निकलता है। इस उभार को मुकुल या वह (bud) कहते हैं। ये एककोशिकीय या बहुकोशिकीय भी हो सकते हैं। इसके साथ केंद्रक विभाजित होकर दो केंद्रकों का निर्माण करता है, जिनमें से एक केंद्रक मुकुल में पहुँच जाता है। केंद्रकयुक्त मुकुल जनक के शरीर से विलग होकर नए जीव का निर्माण करता है। यह अपने में परिपूर्ण होता है तथा बिलकुल स्वतंत्र होकर जीवनयापन करता है।
(ख) बहुकोशिकीय जीवों में मुकुलन (Budding in
multicellular organisms)- कुछ बहुकोशिकीय जीवो, जैसे हाइड्रा, स्पंज (sponges) आदि में जनन मुकुलन द्वारा होता है। हाइड्रा में शरीरभित्ति से सर्वप्रथम बाहर की ओर एक छोटा-सा उभार (protuberance) निकलता है, जिसे मुकुल (bud) कहते हैं। धीरे-धीरे इस मुकुल के आकार में वृद्धि होने लगती है तथा जनक की सभी रचनाओं का निर्माण हो जाता है एवं यह एक छोटे हाइड्रा का रूप धारण कर लेता है। अंत में, यह नया छोटा हाइड्रा अपने जनक हाइड्रा के शरीर से विलग होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लेता है।
3. अपखंडन या पुनर्जनन (Fragmentation or regeneration) - इस प्रकार के जनन में जीवों का शरीर किसी कारण से (प्राकृतिक एवं कृत्रिम) दो या अधिक टुकड़ों में खंडित हो जाता है तथा प्रत्येक खंड अपने खोए हुए भागों का विकास कर पूर्ण विकसित नए जीव में परिवर्तित हो जाता है और सामान्य जीवनयापन करता है। स्पाइरोगाइरा (Spirogyra), हाइड्रा तथा प्लेनेरिया (Planaria) नामक एक स्वतंत्रजीवी फीताकृमि (tapeworm) आदि में इस प्रकार का जनन पाया जाता है।
4. बीजाणुजनन (Sporulation or spore formation)– निम्न श्रेणी के जीवों, जैसे जीवाणु, शैवाल, कवक आदि में बीजाणु निर्माण अलैगिक जनन की मुख्य विधि है। इस प्रकार के जनन में सामान्यतः सूक्ष्म थैली जैसी बीजाणुधानियों (sporangia or zoosporangia) का निर्माण होता है। इसके भीतर अनेक छोटी-छोटी गोल, हलकी रचनाएँ बनती हैं, जिन्हें बीजाणु या
स्पोर (spore) कहा जाता है। बीजाणुधानी के चारों ओर एक मोटा और कड़ा आवरण रहता है, जो इन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में सुरक्षा प्रदान करता है। नमी की कमी यानी सूखा, उच्च तापमान, उच्च अम्लीयता या उच्च क्षारीयता आदि का वातावरण में मौजूद रहना प्रतिकूल परिस्थितियाँ होती हैं। वातावरण में जब अनुकूल परिस्थितियाँ बहाल होती हैं तब बीजाणुधानी की मोटी भित्ति फट जाती है और बीजाणु बाहर निकल जाते हैं। चूँकि बीजाणु बहुत हलके होते हैं, अतः हवा के द्वारा इनका प्रकीर्णन दूर-दूर तक होता है। भिन्न-भिन्न जीवों में बीजाणुओं की संख्या अलग-अलग होती है। अनुकूल जगह मिलने पर बीजाणु अंकुरित होते हैं तथा उनके भीतर की
कोशिकीय रचनाएँ बाहर निकलकर वृद्धि करने लगती है। जब ये विकसित होकर परिपक्व हो जाती हैं तो इनमें पुनः जनन करने की क्षमता पैदा हो जाती है। पौधों में कायिक प्रवर्धन जनन की वह प्रक्रिया जिसमें पादप-शरीर का कोई कायिक या वर्धी भाग (vegetative part); जैसे जड़, तना, पत्ती आदि उससे विलग और परिवर्द्धित होकर नए पौधे का निर्माण करता है, उसे कायिक प्रवर्धन कहते हैं। इसके द्वारा बननेवाले पौधे अपने जनक के अनुरूप होते हैं एवं जनक से विलग होने के बाद अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर जीवनयापन करते हैं। जंतुओं के विपरीत एकल पौधों में जनन की यह सबसे सरल विधि है। इस तरह का कायिक प्रवर्धन ऑरकिड (orchid), अंगूर, गुलाब एवं सजावटी पौधों (ornamental plants) में सामान्यतः होता है।
कायिक प्रवर्धन प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों प्रकार से होता है। प्राकृतिक कायिक प्रवर्धन जड़, तने या पत्तियों द्वारा होता है। निम्नलिखित कार्यकलाप से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।
जनन की उस विधि को, जिसमें दो भिन्न लिंग, अर्थात नर और मादा भाग लेते हैं, लैंगिक जनन (sexual reproduction) कहते हैं। नर तथा मादा जनकों द्वारा अलग-अलग प्रकार के युग्मकों (gametes) का निर्माण होता है जो एककोशिकीय संरचनाएँ होती हैं। नर युग्मक (male gamete) आकार में अपेक्षाकृत छोटा एवं सचल (motile) होता है, जबकि मादा युग्मक (female gamete) आकार में बड़ा तथा अचल (nonmotile) होता है। नर युग्मक को शुक्राणु या स्पर्म (sperm) और मादा युग्मक को अंडाणु या ओवम (ovum) कहते हैं। लैंगिक जनन में दो मुख्य क्रियाएँ होती हैं— पहली, युग्मकों का निर्माण एवं दूसरी, युग्मकों का संयुग्मन या संगलन। नर युग्मक का मादा युग्मक से संगलन होता है जिसे निषेचन कहते हैं। निषेचन के फलस्वरूप सर्वप्रथम एककोशिकीय युग्मनज या जाइगोट (zygote) का निर्माण होता है। यही युग्मनज विकसित, विभाजित एवं विभेदित होकर बहुकोशिकीय वयस्क जीव में परिवर्तित हो जाता है जो स्वतंत्र जीवनयापन करता है। उच्च कोटि केबहुकोशिकीय पादपों एवं जंतुओं में सामान्यतः लैंगिक जनन ही होता है, हालाँकि एककोशिकीय निम्न श्रेणी के जीवों, जैसे पैरामीशियम (Paramecium), शैवाल आदि में भी यह पाया जाता है।
लिंग के आधार पर जीवों को दो वर्गों में बाँटा गया है – (i) एकलिंगी, और (ii) द्विलिंगी। एकलिंगी जीव (unisexual organisms) वे होते हैं जिनमें नर और मादा लिंग अलग-अलग जीवों या व्यष्टियों में पाए जाते हैं। जो जीव केवल शुक्राणु (sperms) उत्पन्न करते हैं, उन्हें नर जीव कहते हैं एवं सिर्फ अंडाणु (ova) उत्पन्न करनेवाले जीव को मादा जीव कहते हैं। अधिकांश जीवों में नर और मादा लिंग अलग-अलग व्यष्टियों ( individuals) में पाए जाते हैं एवं सुस्पष्ट होते हैं, जैसे पपीता, तरबूज, मनुष्य, घोड़ा, बंदर, मोर, कबूतर, मछली, मेढ़क आदि। कुछ जीवों, जैसे सरसों, गुड़हल, केंचुआ (earthworms), कृमि (worms), हाइड्रा (Hydra) आदि एवं अधिकांश पादपों में सामान्यतः नर और मादा लिंग एक ही व्यष्टि में मौजूद होते हैं। ऐसे जीवों को द्विलिंगी या उभयलिंगी या बाइसेक्सुअल (bisexual) या हर्माफ्रोडाइट (hermaphrodite) कहते हैं।
लैंगिक जनन की सार्थकता
युग्मकों के बनने के पहले अर्द्धसूत्री विभाजन (meiosis) होता है जिससे उनमें गुणसूत्र की संख्या जीवों के मूल शरीर में पाई जानेवाली संख्या की ठीक आधी होती है। जब दोनों (नर और मादा) युग्मकों के बीच संयुग्मन होता है तो पुनः गुणसूत्र की संख्या मूल शरीर की संख्या के बराबर हो जाती है और इस प्रकार जीव अपने शरीर में गुणसूत्र की संख्या को स्थिर बनाए रखते हैं। अगर ऐसा न हो तो प्रत्येक अगली पीढ़ी में DNA. की मात्रा पिछली पीढ़ी से दोगुनी होती जाएगी एवं धरती पर केवल DNA ही मिलेंगे एवं जीवों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। जीवों की हर जाति में गुणसूत्र की संख्या अलग-अलग एवं स्थिर रहती है।
जैसा कि आप शुरू में पढ़ चुके हैं, DNA को प्रतिकृति बनने के दौरान कुछ विभिन्नता उत्पन्न होती है। हर एक DNA प्रतिकृति अपने में नयी विभिन्नता के साथ-साथ पहले की पीढ़ियों की विभिन्नताओं को भी संगृहीत करती है। चूंकि लैंगिक जनन में दो जीव (नर एवं मादा) भाग लेते है, अतः इससे बननेवाले जीवों में दो विभिन्न जीवों से प्राप्त DNA समाहित रहते हैं। इसके फलस्वरूप दो जीवों से प्राप्त DNA की विभिन्नताओं के संयोजन से नए संयोजन पैदा होते हैं। इससे धीरे-धीरे जीवों की नई स्पीशीज की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक स्पीशीज की समष्टि से उत्पन्न होनेवाली विभिन्नता उस स्पीशीज के अस्तित्व को कायम रखने में सहायक होती है। इस प्रकार, लैंगिक जनन से जीवों में विविधता पैदा होती है जो जैव विकास के लिए आवश्यक है।
-पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
लैंगिक जनन के लिए पुष्पी पौधों में फूल या पुष्प ही वास्तविक जनन भाग हैं, क्योंकि इनमें जनन अंग उपस्थित होते हैं जो जनन-क्रिया के लिए आवश्यक है। अतः, पादप-जनन अंगों को जानने के लिए एक सामान्य पुष्प की रचना का अध्ययन जरूरी है।
पुष्प एवं इसके जनन भाग सामान्यतः फूल एक डंठल (stalk) के द्वारा तने से जुड़ा रहता है, जिसे वृंत या पेडिसेल (pedicel) कहते हैं। वृंत के सिरे पर स्थित फूला हुआ तथा चपटा भाग पुष्पासन या थैलेमस (thalamus) कहलाता है। पुष्प के विभिन्न पुष्पीय भाग (floral parts) पुष्पासन के ऊपर एक निश्चित प्रकार के चक्र में व्यवस्थित रहते है।
एक प्ररूपी फूल (typical flower) में चार प्रकार के पुष्पपत्र होते है – 1. बाह्यदलपुंज (calyx), 2. दलपुंज (corolla), 3. पुमंग (androecium), और 4 जायांग (gynoecium)।
इनमें से बाहरी दो चक्रों यानी बाह्यदलपुंज एवं दलपुंज को सहायक अंग (accessory organs) एवं भीतरी दो चक्रों यानी पुमंग और जायांग को आवश्यक अंग (essential organs) कहा जाता है। सहायक अंग फूल को आकर्षक बनाने के साथ आवश्यक अंगों की रक्षा भी करते हैं तथा आवश्यक अंग जनन का कार्य करते हैं। जब फूल में सिर्फ पुमंग या जायांग रहते हैं तो उन्हें एकलिंगी एवं दोनों की उपस्थिति होने पर उन्हें उभयलिंगी कहते हैं।
पुमंग (Androecium)- यह पुष्प का नर भाग है। इसमें कई लंबी-लंबी रचनाएँ होती हैं जिन्हें पुंकेसर (stamens) कहते हैं। पुष्प का वास्तविक नर भाग पुंकेसर ही है।
प्रत्येक पुंकेसर के दो मुख्य भाग होते हैं – (i) तंतु (filament), जो लचीला, पतला, लंबा तथा डोरे के समान होता है और पुष्पासन से जुड़ा रहता है, तथा (ii) परागकोश (anther), जो तंतु के अग्रभाग में अवस्थित रहता है। जब आप किसी फूल के पुंकेसर को स्पर्श करते हैं तो आपके हाथ में पीला पाउडर की तरह परागकण लग जाता है जो परागकोश से निकलता है।
जायांग या गाइनोशियम या पिस्टिल (Gynoecium or pistil) - यह एक या एक से अधिक स्त्रीकेसर या कार्पेल्स (carpels) का बना होता है। जायांग पौधों का मादा भाग है। स्त्रीकेसर या तो अकेले (solitary) या अनेक और एक-दूसरे से पृथक या जुड़े हुए भी हो सकते हैं। प्रत्येक स्त्रीकेसर में तीन भाग होते हैं - अंडाशय, वर्तिका एवं वर्तिकाग्र ।
अंडाशय (Ovary) - यह स्त्रीकेसर का आधारीय भाग है जो पुष्पासन से जुड़ा रहता है। अंडाशय सामान्यतः फूली हुई रचना होती है जिससे एक लंबी एवं पतली वृंत जैसी रचना निकली रहती है, जिसे वर्तिका या स्टाइल (style) कहते हैं। वर्तिका के शिखर पर फूली हुई, छोटी, चिपटी एवं चिपचिपी रचना होती है, जिसे वर्तिकाग्र या स्टिग्मा (stigma) कहते हैं। अंडाशय के भीतर वीजांड या ओव्यूल (ovule) रहते हैं जिनकी संख्या विभिन्न पौधों में निश्चित रहती है।
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